April 20, 2024

अपने ही घर में कब तक बहिष्कृत रहेगी हिन्दी

बचपन से ज्यादातर विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में पठन पाठन करते हैं मातृभाषा से लगाव रखते हैं अपनी भाषा पर गर्व करते हैं हिंदी में लिखना,पढऩा और काम करना चाहते हैं किंतु आगे चलकर देखते हैं कि हिंदी यहां केवल आम जनमानस की भाषा है हिन्दी के अधिकांश प्रोफेसर हिन्दी केवल कक्षा में बोलते हैं, नेतागण हिन्दी केवल रैलियों में बोलते हैं, हिन्दी फिल्मोद्योग में गायक और अभिनेता हिन्दी का प्रयोग केवल स्टूडियो और  फिल्मी सम्वाद बोलते समय करते हैं तथा प्रशासन की सम्पूर्ण औपचारिक गतिविधियों की प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी है; फिर भी हिंदी से इतना प्रेम होता है कि हिंदी पढ़कर वे हमेशा गौरव महसूस करते हैं और हिंदी में ही अनिवार्य रूप से काम करना चाहते हैं किंतु स्नातक तक आते-आते हिंदी माध्यम से पढऩे वाले विद्यार्थियों का ही नहीं अपितु हिंदी साहित्य पढऩे वालों का भी मोहभंग होने लगता है। जो थोड़ा बहुत लगाव बना रहता है वो परास्नातक तक आते-आते दम तोड़ देता है, आप सोचिए कि जो विद्यार्थी हिन्दी में पूर्णत: दक्ष हो बचपन से लगन के साथ हिन्दी पढ़ा हो और आजीवन हिन्दी पढ़ाना चाहता हो उसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नोटिस पढऩे के लिए अनिवार्य रूप से अंग्रेजी की ज़रूरत पड़े, न्यायालयों में कोई काम पड़ जाए तो बिना अंग्रेजी के वह खुद को अनपढ़ महसूस करे,  विश्वविद्यालयों की नोटिस और विवरणिकाएं पढऩे के लिए बिना अंग्रेजी के बिना ‘काला अक्षर भैंस बराबर वाली हालत हो जाए, कम्प्यूटर में सुगमतापूर्वक काम करने के लिए अनिवार्य रूप से अंग्रेजी की आवश्यकता पड़े तो उस विद्यार्थी के मन में क्या बीतेगी।
14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया था और संविधान के भाग 17 के अनुच्छेद 343 ‘क में कहा गया कि 15 वर्ष (1965) तक सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी होगी तथा वैकल्पिक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को भी स्थान दिया गया किंतु देखते ही देखते 15 वर्ष बीत गये और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात बात ही रह गयी अंग्रेजी आगे बढ़ गई और हिंदी वहीं की वहीं रह गई। आज सामाजिक रूप से भी हिंदी का स्तर लगभग गिरता जा रहा है पढ़े-लिखे लोग अपने बच्चों को हिंदी नहीं पढ़ाना चाहते; कारण यह है कि हिंदी में उनके बच्चे आईएएस नहीं बन , हिंदी पढ़ कर उनके बच्चे कानून की पढ़ाई नहीं कर सकते इंजीनियर नहीं बन सकते उन्हें मालूम है कि आगे चलकर हमारे बच्चों का हिंदी में कोई भविष्य नहीं है इसलिए वे लोग अपने बच्चों को पढ़ाते ही अंग्रेजी माध्यम से हैं उनके बच्चे हिंदी से उतना ही ताल्लुक रखते हैं जितने से  वे केवल परीक्षा में पास हो जाएं। वैयाकरण और भाषा-वैज्ञानिक कहते हैं कि हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी वैज्ञानिक लिपि में लिखी जाने वाली भाषा है हिंदी की वाक्य-संरचना अत्यंत शुद्ध है हिंदी जिस रूप में लिखी जाती है उसी रूप में बोली जाती है उसका उच्चारण भ्रामक नहीं वरन् बहुत सटीक है इन सारी विशेषताओं को उद्धृत करने के हम आदी हो गए हैं हम इस वैज्ञानिकता का कतई उपयोग नहीं करना चाहते हमने ठान लिया है कि हिंदी चाहे जितनी वैज्ञानिक भाषा हो पर हम शिक्षा व्यवस्था और शासन-तंत्र अंग्रेजी में ही चलाएंगे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन -जिन भारतीय भाषाओं को स्थान दिया गया है उनमें से कोई ऐसी भाषा नहीं है जो उच्च शिक्षा में अध्ययन -अध्यापन का माध्यम बन सकी हो, मानाकि उन सारी भाषाओं में इतनी अर्थवत्ता नहीं है कि वह प्रत्येक विषय के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम बन सके किंतु हिंदी में तो वह अर्थवत्ता है, वह सामर्थ्य है जिससे उच्च शिक्षा में हिंदी शिक्षा का माध्यम बन सके और शासन-तंत्र का विचार-विनिमय भी कर सके। संपूर्ण देश में हिंदी के विशेष संस्थानों के अतिरिक्त आज शायद ही कोई उच्च शिक्षा संस्थान होगा जिसमें पढ़ाई का माध्यम हिंदी होगा आजादी के बाद 15 वर्षों का समय लेकर हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करने की बात कही गई किंतु वह 15 वर्ष आज लगभग 75 वर्षों में तब्दील हो चुके हैं पर विकास हिंदी का नहीं अपितु केवल अंग्रेजी का ही हुआ है तथा हिंदी जैसी वैज्ञानिक और समर्थ भाषा होने के बावजूद हमारे देश में राष्ट्रभाषा का संपूर्ण कार्य अंग्रेजी में हो रहा है, अंग्रेज चले गए किंतु भाषा की गुलामी हमारे मन मस्तिष्क में आज भी छाई हुई है भाषिक रूप से हम अब भी स्वाधीन नहीं हो सके हैं।
सवाल ये उठता है कि क्या इस देश की संस्कृति को अंग्रेजी व्यक्त कर पाएगी, क्या हिन्दुस्तान की भाषा लुप्त हो जाएगी, आने वाली पीढिय़ां क्या तन से हिन्दुस्तानी और मन से अंग्रेजी हो जाएंगी?
मुझे अंग्रेजी से कोई आपत्ति नहीं है अंग्रेजी भी एक भाषा है ज्ञानात्मक विस्तार के लिए उसे भी सीखना चाहिए किंतु हिन्दुस्तान में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी अनिवार्य रूप से बाध्य होकर सीखना पड़े ये बड़े शर्म की बात है यदि कोई मुसाफिऱ बाहर से अपने घर में आये तो निस्संदेह उसका आतिथ्य करना चाहिए, उसका सम्मान करना चाहिए किंतु यदि वह मुसाफिर घर के मालिक को नौकर बना दे और स्वयं मालिक बन बैठे तो उस घर के सदस्यों को तो शर्म आनी चाहिए, कम से कम उनका खून खौलना चाहिए पर खेद के साथ कह रहा हूं कि हिंदी अपने ही घर में लगभग 75 सालों से नौकरानी की तरह जीवन व्यतीत कर रही है , अपने ही घर में बहिष्कृत हो चुकी है और हिन्दी को इस पद तक पहुंचाने में हिन्दुस्तान के पढ़े लिखे लोगों की अहं भूमिका है।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा की किसी भी भाषा के विकास के लिए प्रथम दृष्टया उसकी शैक्षिक उपयोगिता होनी चाहिए, उसमें रोजगार उपलब्ध होने चाहिए देश की राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा प्राप्त होना चाहिए अन्यथा कि स्थिति में वह भाषा बोलने वाले तो होंगे पर आगे उसका विकास मुश्किल हो जाएगा।