March 28, 2024

अंतरिक्ष कार्यक्रमों में जनसरोकारों के प्रणेता

आखरीआंख
जहां एक ओर चांद पर भेजे गए चंद्रयान-2 के मूनलैंडर विक्रम से संपर्क न हो पाने के कारणों की समीक्षा में अंतरिक्ष विज्ञानी जुटे हैं तो वहीं लोगों के बीच इसको लेकर पैदा हुई जिज्ञासा और उत्साह अब कम हो चला है। वैज्ञानिक और तकनीकी प्राप्ति का ध्येय लिए यह अभियान अन्य संयोगों की वजह से भी विशेष था, क्योंकि यह हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम के इतिहास में दो महत्वपूर्ण अवसरों से जुड़ा है, उनमें एक है इसरो की स्वर्ण जयंती और दूसरा है इसके संस्थापक विक्रम अंबालाल साराभाई की जन्म शताब्दी, यही कारण है कि मूनलैंडर का नामकरण उनके समान में किया गया है। यह पहली बार है कि भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी ने अपने किसी अभियान का नामकरण अग्रणी वैज्ञानिक अथवा व्यक्तित्व पर किया है।
हालांकि, विक्रम साराभाई को नये आजाद हुए भारत के विज्ञान एवं तकनीक कार्यक्रमों की नींव रखने वाली त्रिमूर्ति भाभा-भटनागर-महालानोबिस के साथ रखकर नहीं गिना जाता है, तथापि नि:संदेह वे इसी श्रेणी में आते हैं। उन्होंने 1947 में वायुमंडलीय भौतिकी और ब्रह्मांडीय किरणों के अध्ययन हेतु भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी-पीआरएल) की नींव रखी थी, जो वर्ष 1945 में डॉ. होमी जहांगीर भाभा द्वारा स्थापित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) की तर्ज पर थी। यह दोनों संस्थान यूं तो निजी संस्थान थे लेकिन आगे इनका विकास बतौर सार्वजनिक-निजी भागीदार संस्था के रूप में हुआ है। वर्ष 1955 में टीआईएफआर सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के तत्वावधान में तत्कालीन बंबई सरकार (उस वक्त महाराष्ट्र सरकार का नाम यही था) का संयुक्त उपक्रम बन गया था। वहीं दूसरी ओर निजी संस्थान की तरह शुरू हुआ पीआरएल चार भागीदारों वाले ट्रस्ट के अंतर्गत आ गया था। ये थे : भारत सरकार का परमाणु ऊर्जा विभाग, गुजरात सरकार, कर्माक्षेत्र एजुकेशन फाउंडेशन और अहमदाबाद एजुकेशन सोसायटी। इन दोनों अनूठी पहलों ने जिस चीज को जन्म दिया, वह आज भारत का सामरिक अंतरिक्ष एवं विज्ञान क्षेत्र कहलाता है। जहां टीआईएफआर भारत के परमाणु कार्यक्रम का जन्मदाता है तो पीआरएल देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम का उद्गमस्थल बना।
देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को साकार करते वक्त विक्रम साराभाई ने एकदम अनूठी सोच अपनाई थी। 1960 के दशक में अंतरिक्ष क्षेत्र में विश्व की दोनों महाशक्तियों की श्रेष्ठता की दौड़ के विपरीत साराभाई ने ऐसा अंतरिक्ष कार्यक्रम बनाने की वकालत की थी जो लोगों के रोजमर्रा के जीवन में काम आए और देश की तरक्की में सहायक हो। उन्होंने संचार और शिक्षा के प्रसार के लिए उपग्रह तकनीक इस्तेमाल करने का प्रस्ताव दिया था। विक्रम साराभाई ने अंतरिक्ष तकनीक का जनहित में अनुप्रयोग करना उस वक्त ही सोच लिया था जब भारत में अभी तक कारगर रॉकेट या उपग्रह का खाका तक नहीं बना था। आगे इन अनुप्रयोगों को संवर्धित करने के लिए उन्होंने न केवल वैज्ञानिक भर्ती किए बल्कि समाजविज्ञानी, शिक्षाविद् और कलाकार भी साथ लिए। इन सबके मिल जाने से यह अंतरिक्ष तकनीक के उपयोग में एकदम नूतन प्रयोग बन गया था, जिसे ‘उपग्रह शिक्षण टेलीविजन प्रयोगÓ का नाम दिया गया था, यह उनकी मृत्यु के कुछ साल बाद फलीभूत हुआ था। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकासात्मक संचार का बेहतरीन उदाहरण माना गया था। यह उनका दृष्टिकोण ही था कि आज इसरो को दुनिया में अंतरिक्ष तकनीक को जनहित के लिए प्रयोग करने में अग्रणी गिना जाता है, जैसे कि संचार, रिमोट सेंसिग और मौसम भविष्यवाणी इत्यादि।
जो अनेकानेक भूमिकाएं उन्होंने अदा की हैं उनमें एक है अपने पथप्रदर्शक भाभा की मृत्यु उपरांत इलेक्ट्रॉनिक कमेटी का अध्यक्ष भार संभालना (तब यह भाभा कमेटी नाम से जानी जाती थी)। इस मंच की स्थापना का उद्देश्य 1962 के युद्ध के बाद मुल्क में स्वदेशी इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की स्थापना का खाका तैयार करना था, क्योंकि लड़ाई के दौरान हमारी सेना को इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों की सत कमी झेलनी पड़ी थी। भाभा के देहांत के बाद इसकी रिपोर्ट को अमलीजामा पहनाने की जिमेवारी साराभाई के कंधों पर आन पड़ी थी। उनके हाथ में जो काम था उसमें इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे नवीन उद्योगों का सुनियोजित उद्भव कराना था। इस काम को उन्होंने बड़े औद्योगिक इकाई को चलाने के अपने अनुभव और प्रशासनिक पद्धति के सुमेल से कर दिखाया था। वे इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड को एक सरकारी उपक्रम की तरह बनाने की बजाय व्यावसायिक उद्योग की तरह देखना चाहते थे यानी सार्वजनिक उपक्रमों को लेकर उनका दृष्टिकोण यह था कि इसे एक सरकार नियंत्रित इकाई न होकर अपने नए-नए उत्पादों से लाभ कमाने वाले उद्यम की तरह होना चाहिए।
जहां वर्ष 1978 में भारत में मशहूर अमेरिकी कंप्यूटर कंपनी आईबीएम के बंद होने की कहानी काफी लोग जानते होंगे, वहीं कुछ ही लोगों को पता होगा कि यह विक्रम साराभाई ही थे जिन्होंने सबसे पहले इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ वर्ष 1968 में लोहा लिया था और इसकी गतिविधियों पर नजरसाजी करने की प्रक्रिया शुरू की थी। आईबीएम की गलत व्यापारिक नीतियों का निजी अनुभव उन्हें न केवल तब से था जब वे पीआरएल में इसके बनाए मेनफ्रेम कंप्यूटर का उपयोग किया करते थे बल्कि कपड़े के व्यापार में लगे अपने परिवार के अनुभवों से भी था। जब आईबीएम ने इलेक्ट्रॉनिक कमेटी के समक्ष अपनी डेटा प्रोसेसिंग मशीन (कंप्यूटर) के नए संस्करण को बनाने हेतु लाइसेंस प्राप्त करने का आवेदन दिया तो साराभाई ने इस मामले की पूरी जांच विशेषज्ञ कमेटी से करवाई थी। इसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आईबीएम को भारत में पुराने पड़ चुके कंप्यूटरों का बाजार बनाने की बजाय अपने नवीनतम कंप्यूटर लाने चाहिए और इनकी बिक्री को अनिवार्य रूप से रखरखाव का अनुबंध खुद के साथ ही करने की शर्त से नहीं जोडऩा चाहिए (जो उस वक्त अतिरिक्त कमाई का बड़ा जरिया थी) —यह ऐसा विवादित मुद्दा था जिस पर आईबीएम टस-से-मस होने को तैयार नहीं था।
अहमदाबाद वस्त्र उद्योग अनुसंधान संगठन स्थापित करना विक्रम साराभाई का एक और अभिनव प्रयास था, इसके तहत मिल मालिकों ने मिल-जुलकर एक सहकारी अनुसंधान केंद्र बनाया था। यह प्रयोगशाला पूरी तरह से सरकारी धन की बजाय यानी जैसा कि विज्ञान रिसर्च एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में दिए जाने वाले पैसे से चलने वाले संस्थानों के केस में होता था, यह संस्थान केवल निजी धन से संचालित था। साराभाई ने भारतीय प्रशासनिक शिक्षा विद्यालय बनाते समय भी यही तरीका अपनाया था। तब फोर्ड फाउंडेशन और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल ने मिलकर अहमदाबाद स्थित आईआईएम की स्थापना की थी। अपने साथी महालानोबिस की तरह साराभाई भी दुनियाभर में अपने समकक्षों और संस्थानों के साथ काफी संपर्क और निकटता बनाकर रखते थे, इनमें एमआईटी और हार्वर्ड से लेकर नासा और नेशनल साइंस फाउंडेशन तक शामिल थे। आज देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पहचान और पहुंच वाले संस्थानों के निर्माता के तौर पर उनके जैसे हरफनमौला की कमी बेहद खल रही है।