April 19, 2024

क्रिकेट में किस्मत भी लगाती हैं छक्का

( आखरीआंख )
क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल कहा जाता है। जहां अनिश्चितता हो, वहां रोमांच स्वाभाविक है, पर याद नहीं पड़ता कि विश्व कप क्रिकेट के 44 साल के इतिहास में कोई मैच इतना रोमांचक हुआ हो, जितना इस बार का फाइनल हुआ। किसी एक स्वाभाविक विजेता के अभाव में मेजबान इंगलैंड तो खिताब के दावेदारों में गिना जा रहा था, पर न्यूजीलैंड पर दांव लगाने वाले यादा नहीं थे, लेकिन इस विश्व कप में उसने साबित कर दिया कि बिना खिताब जीते ही उसकी विशुद्ध पेशेवर टीम की छवि ऐसे ही नहीं है। न्यूजीलैंड न सिर्फ खिताब का दावेदार माने जा रहे भारत को हराकर फाइनल में पहुंचा, बल्कि इंगलैंड को बराबर की टक्कर दी। टक्कर कितनी जबरदस्त थी, फाइनल के आंकड़े गवाह हैं। न्यूजीलैंड ने 8 विकेट खोकर 241 रन बनाये। जीत के लिए इंगलैंड को 242 रन बनाने थे, लेकिन न्यूजीलैंड ने उसे 241 रन पर ही ऑल आउट कर दिया।
यह अप्रत्याशित तो नहीं माना जा सकता, क्योंकि आईसीसी ने ऐसी ही स्थिति से निपटने के लिए 2012 में नियम बनाये थे, जिनके मुताबिक मैच टाई हो जाने पर फैसला सुपर ओवर में होना था। 44 साल में पहली बार विश्व कप में फाइनल मैच टाई हुआ और सात साल बाद सुपर ओवर के नियम की जरूरत पड़ी, पर क्रिकेट के रोमांच की पराकाष्ठा देखिए कि सुपर ओवर भी टाई हो गया। मैच में न्यूजीलैंड ने पहले बल्लेबाजी की थी, इसलिए सुपर ओवर में नियमानुसार इंगलैंड को पहले बल्लेबाजी मिली और उसने 15 रन बनाये। न्यूजीलैंड 16 रन बनाकर मैच जीत सकता था, लेकिन वह भी सुपर ओवर में 15 रन ही बना सका। नतीजतन, नियमानुसार दोनों टीमों की पारियों में लगायी गयी बाउंड्रियों यानी चौकों-छक्कों की तुलना की गयी, जिसमें बाजी इंगलैंड के हाथ रही। इंगलैंड ने 50 ओवर की अपनी पारी में 22 चौकों और दो छक्कों समेत कुल 24 बाउंड्री लगायी थीं, जबकि न्यूजीलैंड ने 14 चौकों और दो छक्कों समेत मात्र 16 बाउंड्री। जब दोनों टीमों के प्रदर्शन में इतनी निकटता हो तो नियम के आधार पर खिताबी हार-जीत से खिलाडिय़ों ही नहीं, प्रशंसकों का दिल भी टूटता है। ऐसे में मैदानी प्रदर्शन पर भारी पडऩे वाले नियमों पर सवाल उठना भी स्वाभाविक है।
ध्यान रहे कि 2011 तक विश्व कप मैच टाई होने की स्थिति में कम विकेट खोने वाली टीम को विजेता घोषित किये जाने का नियम था। निश्चय ही वह नियम मैदान पर प्रदर्शन के अपेक्षाकृत अधिक करीब था। कहना नहीं होगा कि अगर अब भी वही नियम होता तो इंगलैंड के मुकाबले दो विकेट कम गंवाकर 241 रन बनाने वाला न्यूजीलैंड नया विश्व विजेता होता। मैदान पर फैसला न हो पाने पर लागू किये जाने वाले नियम कब किस टीम के मददगार बन जायें, इसमें कौशल से यादा किस्मत की भूमिका रहती है। मसलन, अगर इंगलैंड अपनी पारी के आखिरी ओवर में जीत के लिए जरूरी 15 रन बना लेता तो सुपर ओवर की नौबत ही नहीं आती, और उसके विश्व विजेता बनने को कमतर नहीं आंका जाता। जो इंगलैंड पारी के आखिरी ओवर में 15 के बजाय 14 रन ही बना पाया, जिसके चलते मैच टाई हो गया, उसी ने सुपर ओवर में 15 रन बना लिये। वैसे पारी के 50वें ओवर में ओवर थ्रो के चलते इंगलैंड को मिले 6 रन पर भी विवाद है। ब्रेन स्टोक्स ने चौथी गेंद पर मिड विकेट पर शॉट खेला। गुप्तिल ने जब वह गेंद फील्ड कर थ्रो किया और गेंद स्टोक्स के बल्ले से लगकर बाउंड्री के बाहर चली गयी, तब तक स्टोक्स और आदिल राशिद ने दूसरे रन के लिए दौड़ते हुए एक-दूसरे को क्रॉस नहीं किया था। क्रिकेट के नियम बनाने वाली संस्था एमसीसी के सदस्य एवं पांच बार सर्वश्रेष्ठ अंपायर करार दिये गये साइमन टॉफेल का कहना है कि तब इंगलैंड को पांच रन ही मिलने चाहिए थे, लेकिन फील्ड अंपायर ने गलती से छह रन दे दिये। जाहिर है, उस ओवर थ्रो पर पांच रन ही मिलने पर न्यूजीलैंड नया विश्व विजेता होता। यह सही है कि खेल में तकनीक के बढ़ते उपयोग ने ऐसी गलतियों से बचना संभव कर दिया है, लेकिन फिर भी अंपायर आखिर इनसान ही हैं और उनसे गलतियां होना संभव है।
ध्यान रहे कि भारत-न्यूजीलैंड के बीच खेले गये सेमीफाइनल में जिस गेंद पर महेंद्र सिंह धोनी को रन आउट करार दिया गया, वह दरअसल नो बॉल थी। हालांकि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है, फिर भी कहा जा रहा है कि अगर धोनी उस गेंद पर रन आउट नहीं दिये जाते तो भारत फाइनल में पहुंचता—और कौन जानता है कि तब वह ही तीसरी बार विश्व विजेता भी बनता। पर शुरुआत में 19 गेंदों में महज पांच रन पर ही तीन विकेट गंवा देने वाली और पूरे 50 ओवर भी न खेल पाने वाली भारतीय टीम 18 रन से पराजय के फासले को पार कर पाती, यह दावे से कैसे कहा जा सकता है? ऐसे अगर-मगर जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हैं। हमें मान लेना चाहिए कि जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह अनिश्चितताओं के खेल क्रिकेट में भी कौशल के साथ-साथ किस्मत बड़ी भूमिका निभाती है। नहीं भूलना चाहिए कि रन बनाने के लिए कई गेंदों की जरूरत पड़ती है, जबकि आउट होने के लिए एक ही गेंद काफी होती है। अंग्रेजी की चर्चित कहावत कैचेज विन्स द मैचेज बताती है कि हाथ आया कैच फिसलने का मतलब दरअसल मैच भी फिसल जाना होता है।
जिस तरह नाटकीय परिस्थितियों में न्यूजीलैंड विश्व कप क्रिकेट फाइनल में हारा, उसके प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक है, लेकिन जीत को कमतर आंकना पहली बार विश्व विजेता बने इंगलैंड के प्रति न्याय नहीं है। चाहे पांचवें विकेट के लिए स्टोक्स और बटलर के बीच 110 रन की साझेदारी हो या आर्चर द्वारा अपने आखिरी पांच ओवरों में 22 रन दिया जाना (जिसमें अंतिम ओवर में दिये गये मात्र तीन रन भी शामिल हैं) अथवा दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध मैच में स्टोक्स द्वारा एक हाथ से लपका गया कैच और फाइनल के सुपर ओवर में रॉय का शानदार थ्रो—इंगलैंड ने इस विश्व कप में बेहतरीन प्रदर्शन किया। हां, यह कहा जा सकता है कि शानदार खेल कौशल दिखाने वाले इंगलैंड को फाइनल में किस्मत का भी साथ मिला, जो न्यूजीलैंड को नहीं मिल पाया। किस्मत से न्यूजीलैंड पहले भी मात खा चुका है। वर्ष 2008 में टी-20 विश्व कप का फाइनल वेस्टइंडीज और न्यूजीलैंड के बीच खेला गया था। तब भी मैच टाई होने पर सुपर ओवर का सहारा लिया गया था, जिसमें न्यूजीलैंड 10 रन से हार गया था।
पहले दो विश्व कप का भी मेजबान रहा इंगलैंड अब विश्व कप जीतने वाला लगातार तीसरा मेजबान बन गया है। ध्यान रहे कि 2011 में भारत ने और 2015 में ऑस्ट्रेलिया ने विश्व कप जीता था। बेशक इंगलैंड का विश्व विजेता बनने का सफर आसान नहीं रहा। फाइनल में तो इंगलैंड 1979 में दूसरे विश्व कप में ही पहुंच गया था, लेकिन तब उसके हिस्से परंपरागत प्रतिद्वंद्वी ऑस्ट्रेलिया से हार ही आयी थी। इंगलैंड विश्व विजेता भले ही अब बना हो, पर क्रिकेट का जनक वही है। उसने क्रिकेट को एक से एक आला दर्जे के बल्लेबाज, गेंदबाज, विकेटकीपर, ऑलराउंडर—यहां तक कि माइक ब्रेयरली सरीखे चतुर कप्तान भी दिये हैं, लेकिन न तो वहां खिलाडिय़ों को देवता बनाया जाता है, न ही उनके दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ते हैं। भारत शायद दुनिया का अकेला देश है, जहां न सिर्फ खिलाडिय़ों को भगवान—सा मान लिया जाता है, बल्कि खेल की हार-जीत को राष्ट्र की प्रतिष्ठा से भी जोड़ दिया जाता है। हालांकि देश में क्रिकेट का संचालन करने वाली बीसीसीआई बहुत पहले सर्वोच अदालत में लिखकर दे चुकी है कि टीम उसका प्रतिनिधित्व करती है, न कि देश का। बेशक दो बार विश्व कप जीत चुकी भारतीय टीम इस बार भी (सेमीफाइनल में हार से पहले) अछा खेली, पर शायद प्रशंसकों को खिताब से कम कुछ भी मंजूर नहीं। ऊंचे सपनों और उमीदों में गलत कुछ भी नहीं, पर खेल किसी भी हार-जीत से (और खिलाड़ी से भी) बड़ा होता है। इस सच से तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि इस बार का विश्व कप फाइनल सर्वश्रेष्ठ खेल दिखाने वाली दो टीमों के बीच खेला गया। इसलिए जीतने वाली टीम को कमतर आंकना किसी भी तरह उचित नहीं।